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श्रेया की जीत, सिस्टम की हार: चीन में ब्रॉन्ज मेडल के बाद भी नौकरी क्यों नहीं?

श्रेया की जीत, सिस्टम की हार: चीन में ब्रॉन्ज मेडल के बाद भी नौकरी क्यों नहीं?

श्रेया की जीत, सिस्टम की हार: चीन में ब्रॉन्ज मेडल के बाद भी नौकरी क्यों नहीं?(image source - Etv Bharat)

झारखंड के एक छोटे से आदिवासी गांव की बेटी श्रेया कुमारी ने वह कर दिखाया है, जो बड़े-बड़े शहरों के लोग भी सिर्फ सपने में सोच पाते हैं। चीन में हुई 10वीं वर्ल्ड वुशु कुंग-फू चैंपियनशिप में उसने देश के लिए कांस्य यानी ब्रॉन्ज मेडल हासिल किया। जब गांव में खुशी की लहर थी, उसी वक्त श्रेया के एक बयान ने सबको सोचने पर मजबूर कर दिया — “ये मेडल मेरे मेहनत की पहचान जरूर है, मगर इससे मुझे नौकरी मिलने की उम्मीद नहीं।”

गांव की बेटी, बड़ी उड़ान : –

झारखंड के एक किसान परिवार में जन्मी श्रेया बचपन से ही लड़कों के बीच खेलकर बड़ी हुई। कबड्डी, खो-खो और दूसरे खेलों में भी नाम कमाया। लेकिन मन वुशु कोचिंग में ही ज्यादा लगा। उसके पापा सुखदेव उरांव खुद खेत में कड़ी मेहनत करते हैं ताकि बेटी को कभी सपनों में रुकावट न आए। जब श्रेया ने ट्रायल पास किया और चीन जाने लगी, तो गांववालों ने चंदा इकट्ठा कर उसकी मदद की। वहां चीन में मुकाबले आसान नहीं थे — मेज़बान देश की खिलाड़ी, दुनिया के चैंपियन। लेकिन श्रेया ने ना हार मानी, ना हिम्मत छोड़ी और मेहनत के दम पर तीसरा स्थान हासिल किया।

जीत के बाद असली जंग शुरू : –

घर लौटी तो गांव, परिवार और राज्य ने खूब स्वागत किया। मीडिया वालों ने तामझाम किया, नेता-मंत्री फोटो खिंचाने पहुंचे, ज़िले के लिए गर्व की बात थी। श्रेया ने कहा, “मैं चाहती हूं कि मेरी जीत से राज्य और देश में वुशु को सम्मान मिले और छोटी जगह की लड़कियां भी आगे बढ़ें।” मगर फिर भी श्रेया को सबसे बड़ा डर नौकरी का है। कहती है — “हमारे यहां क्रिकेट या हॉकी खेलो तो सरकारी नौकरी मिल जाती है, लेकिन वुशु में अंतरराष्ट्रीय पदक जीतने के बावजूद सिर्फ शाबाशी मिलती है, पक्की नौकरी नहीं।”

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खेल, संघर्ष और सिस्टम : –

ये बात सिर्फ श्रेया की नहीं, बल्कि देश के हजारों खिलाड़ियों की भी है जो गैर-लोकप्रिय खेलों में देश का नाम रोशन करते हैं, लेकिन बाद में सरकारी तंत्र से अनदेखी महसूस करते हैं। श्रेया के गांव के लोग अक्सर कहते हैं — “बहन को मेडल तो मिल जाता है, मगर सरकारी नौकरी के फॉर्म में नाम नहीं आता।” हॉकी, क्रिकेट, फुटबॉल जैसे खेलों को तो झारखंड-सरकार आरक्षण देती है, मगर वुशु, कबड्डी, एथलेटिक्स जैसे खेलों के लिए नियम में ढील नहीं मिलती। श्रेया खुद मानती है कि पदक जीतने के बाद अगर आर्थिक और करिअर का सहयोग न मिले, तो अगली पीढ़ी में मोटिवेशन नहीं बन पाता।

श्रेया की जीत, सिस्टम की हार: चीन में ब्रॉन्ज मेडल के बाद भी नौकरी क्यों नहीं?(image source – etv bharat)

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भविष्य की उम्मीद और संदेश : –

फिर भी श्रेया हारना नहीं जानती। उसका कहना है — “मुझे किसी नौकरी या सरकारी इनाम के लिए नहीं, बल्कि अपने खेल के सम्मान के लिए और मेहनत करनी है। अगला लक्ष्य अब गोल्ड मेडल और ज्यादा इंटरनेशनल जीत दर्ज करना है।” कोच, माता-पिता और गांव के लोग भी कहते हैं — “श्रेया हम सबके लिए प्रेरणा है, उसकी कहानी झारखंड के हर बच्चे के लिए सबक है कि मुश्किल चाहे जैसी भी हो, सपना बड़ा रखो।”

कहानी खत्म नहीं, आगे बढ़ने की जरूरत : –

आज भले ही कांस्य पदक का जश्न मना रहा है लेकिन सरकार, खेल-मंत्रालय और समाज को यह सोचना पड़ेगा कि असली परिश्रमी खिलाड़ियों का भविष्य सुरक्षित कैसे हो। क्या खेल के मैदान में बहाया गया पसीना, स्कॉलरशिप या सरकारी नौकरी तक पहुंचेगा या फिर सिर्फ मेडल और फोटो में कैद रह जाएगा? श्रेया जैसे खिलाड़ियों की उम्मीद अब भी सिस्टम के बदलाव से जुड़ी हुई है।

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