78 साल आज़ादी के बाद भी सुप्रीम कोर्ट को पुर्तगाल के ज़माने की उलझन सुलझानी पड़ी
आप सोचिए ज़रा—हम आज 2025 में जी रहे हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट को एक ऐसा मामला सुलझाना पड़ा जो पुर्तगाल के ज़माने से चला आ रहा था। हां, वही पुर्तगाल जिसने कभी भारत के कुछ हिस्सों पर राज किया था। मामला था दादरा और नगर हवेली की ज़मीन का, जो 1923 से 1930 के बीच कुछ लोगों को खेती के लिए दी गई थी। अब इतने साल बाद कोर्ट को तय करना पड़ा कि वो ज़मीन किसकी है!

दादरा और नगर हवेली 1954 में पुर्तगाल के कब्जे से आज़ाद हुआ और 1961 में भारत में पूरी तरह शामिल हो गया। लेकिन उस दौरान पुर्तगाली सरकार ने कुछ लोगों को ज़मीन दी थी—किराए पर, खेती के लिए। ज़मीन तो दी गई, लेकिन कोई पक्का मालिकाना हक नहीं था। फिर क्या हुआ? जैसे-जैसे वक्त बीता, वो ज़मीन उनके बच्चों और पोते-पोतियों तक पहुंच गई। सबने मान लिया कि अब ये ज़मीन उनकी है।
लेकिन भारत सरकार ने 1969 में इन ज़मीनों को वापस लेने का फैसला किया। फिर 1971 में एक नया कानून आया—दादरा और नगर हवेली भूमि सुधार कानून। इसमें साफ कहा गया कि अगर ज़मीन का सही इस्तेमाल नहीं हो रहा, तो सरकार उसे वापस ले सकती है। कलेक्टर ने जांच की और पाया कि ज़मीन बंजर है, खेती नहीं हो रही। तो 30 अप्रैल 1974 को आदेश दे दिया कि ज़मीन सरकार के पास वापस आ जाएगी।
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अब मामला कोर्ट में चला गया। ट्रायल कोर्ट ने 1978 में कहा कि कलेक्टर का आदेश गलत है। लेकिन बॉम्बे हाईकोर्ट ने 2005 में सरकार के पक्ष में फैसला दिया। उन्होंने साफ कहा कि पुर्तगाल के कानून भारत पर लागू नहीं होते, और भारत अपनी संप्रभुता के तहत ज़मीन वापस ले सकता है।
फिर मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। और अब, 2025 में जाकर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया। जस्टिस सूर्यकांत, दीपांकर दत्ता और एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ ने कहा कि ये विडंबना है कि आज़ादी के 78 साल बाद भी हमें औपनिवेशिक ज़माने के मामलों को सुलझाना पड़ रहा है।
कोर्ट ने कहा कि कलेक्टर का 1974 वाला आदेश सही था, और ज़मीन सरकार के पास ही रहेगी। उन्होंने ये भी साफ किया कि पुर्तगाल के ज़माने में जो अधिकार दिए गए थे, वो भारत की अदालतों पर बाध्यकारी नहीं हैं। यानी भारत अपने कानूनों के हिसाब से फैसला ले सकता है।
अब सोचिए, एक ज़मीन का मामला जो 1923 में शुरू हुआ, वो 2025 में जाकर खत्म हुआ। ये सिर्फ कानूनी लड़ाई नहीं थी, ये उस दौर की याद दिलाती है जब भारत पर विदेशी ताकतों का राज था। और ये भी दिखाता है कि हमारी अदालतें कितनी गहराई से हर मामले को देखती हैं, चाहे वो कितना भी पुराना क्यों न हो।
ये कहानी बताती है कि कानून का पहिया धीरे चलता है, लेकिन जब चलता है तो न्याय ज़रूर देता है। और सुप्रीम कोर्ट ने ये साबित कर दिया कि इतिहास की उलझनों को भी सुलझाया जा सकता है—बस वक्त लगता है।
