एक आम इंसान की दलील
सोचिए, जब हम अपने बच्चे को स्कूल भेजते हैं, तो क्या हम बस यही चाहते हैं कि वह पढ़ाई कर सके, समझ सके, और एक बेहतर इंसान बन सके? लगता तो सरल है, पर सच्चाई में हमारी शिक्षा व्यवस्था कई जगहों पर खामोश चीख़ रही है। हाल ही में आने वाली शिक्षा मंत्रालय की रिपोर्ट (UDISE+ 2024-25) ने इस सच को फिर से सामने रखा है। चलिए हम आम भाषा में, जैसे कोई पड़ोसी अपने अनुभव से बताए, पढ़ते हैं कि रिपोर्ट क्या कहती है और हमारे देश की शिक्षा कैसी है।
रिपोर्ट से कुछ बड़े तथ्य : –
सबसे पहले अच्छी खबर: भारत में शिक्षकों की संख्या पहली बार 1 करोड़ से ऊपर पहुंच गई है। यह बड़ी बात है क्योंकि ज्यादा शिक्षक मतलब बेहतर शिक्षा होनी चाहिए, लेकिन यहां तुरंत सवाल उठता है कि क्या गुणवत्ता भी बढ़ी है? नामांकन की बात करें तो 24 करोड़ से अधिक छात्र हैं, लेकिन कुल नामांकन में एक लाख से ज़्यादा की गिरावट आई है, खासकर उन इलाकों में जहां जन्म दर में गिरावट हो रही है जैसे यूपी, बिहार। स्कूलों में कंप्यूटर और इंटरनेट का कनेक्शन बढ़ा है, बिजली, पानी जैसी मूलभूत सुविधाएं बेहतर हुई हैं, लेकिन फिर भी हालत में सुधार कम नजर आता है।
असली मुद्दे: शिक्षक और छात्रों के बीच फासला : –
खास बात यह है कि 1 लाख स्कूल ऐसे हैं जहां केवल एक ही शिक्षक होता है, और इनमें करीब 33 लाख से ज्यादा बच्चे पढ़ते हैं। ये वो स्कूल हैं जहां बच्चों को पूरा ध्यान मिलना तो दूर, शिक्षकों के लिए भी काम का बोझ बहुत ज्यादा है। रिपोर्ट बताती है कि लगभग 10 लाख शिक्षक पद खाली हैं और शिक्षक प्रशिक्षण में कमी बनी हुई है। इसके अलावा, शिक्षकों को हटाकर उन्हें चुनाव या जनगणना जैसे गैर-शिक्षण कामों पर लगाया जाना भी पढ़ाई की गुणवत्ता कम करता है।
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स्कूल छोड़ने की समस्या
प्राथमिक स्कूल तो ठीक-ठाक नामांकन रखते हैं, लेकिन जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं, खासकर कक्षा 9 या बाद की कक्षाओं में, स्कूल छोड़ने की दर काफी बढ़ जाती है। लड़कियों और सामाजिक-आर्थिक रूप से कमजोर समूहों में यह समस्या और गहरी है। वजहें साफ हैं – आर्थिक तंगी, सुविधाओं की कमी, और अक्सर घर पर भी पढ़ाई के सही माहौल का अभाव।
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निजी बनाम सरकारी स्कूल : –
आप सोचेंगे कि आज के समय में निजी स्कूल बेहतर शिक्षा देंगे तो बच्चे वहीं जायेंगे। लेकिन यही परिस्थिति शिक्षा में बड़ा असमानता का कारण बनती है। सरकारी स्कूलों में बुनियादी संसाधन और शिक्षक की कमी से लड़कियां और गरीब बच्चे पिछड़ जाते हैं। जबकि निजी स्कूल महंगे और अक्सर सिर्फ अमीर तबकों के लिए ही सुलभ हैं।
सरकार की क्या पहलें हैं ? : –
सरकार ने बजट में वृद्धि की है। 2025-26 के लिए स्कूल शिक्षा विभाग को 78,572 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं, जो पिछले साल से 16.3% ज्यादा है। लेकिन सवाल यह है कि यह पैसा सही जगह पर कितना पहुँच रहा है और बदलाव कितनी तेजी से हो पा रहा है। स्कूली आधारभूत सुविधाओं में सुधार किया जा रहा है, डिजिटल कनेक्टिविटी बढ़ाई जा रही है, मगर कॅरियर गाइडेंस और व्यावहारिक कौशल की कमी अभी बड़ी चुनौती बनी हुई है।
यह सब आंकड़े और रिपोर्ट कुछ यूं लगती हैं जैसे हम एक बड़ी मशीन की बातें सुन रहे हों, लेकिन जब एक आम बच्चा अपनी सीट पर किताब तक नहीं खोल पाता, टीचर के अभाव में घंटों खाली बैठा रहता है, तो यह रिपोर्ट हमारे सामने केवल कागज पर संख्याएं नहीं बल्कि दर्द की तस्वीर है। शिक्षा सिर्फ नामांकन तक सीमित नहीं है, बल्कि उसको पढ़ने-समझने योग्य बनाना भी जरूरी है।हर कोई चाहता है कि स्कूल सिर्फ पढ़ाई का स्थान न रहे, बल्कि बच्चों की सोच और हुनर को बढ़ावा देने वाला मंच बने। लेकिन रिपोर्ट कहती है कि हमें अभी भी लंबा रास्ता तय करना है।
शिक्षा विभाग की रिपोर्ट एक साफ संदेश देती है कि भले ही आंकड़ों में कुछ सुधार दिखें, फिर भी शिक्षा व्यवस्था में अब भी गहरी समस्याएं जमी हैं। शिक्षकों की कमी, असंगत संसाधन, स्कूल छोड़ने की समस्या और निजी-सरकारी स्कूलों के बीच बढ़ती दूरियां इस व्यवस्था की सच्चाई को बयान करती हैं। आम आदमी जिसकी जेब और समझ दोनों मामूली हैं, उसका नजरिया यही है कि शिक्षा तभी सही मायने में सफल होगी जब हर बच्चा और बच्ची को अच्छी शिक्षा समान रूप से मिले, न कि सिर्फ कागजों पर। इसे पाने के लिए न केवल बजट बढ़ाना होगा, बल्कि जमीन पर काम की गुणवत्ता में सुधार लाना होगा। तभी हमारे बच्चों का भविष्य संवर पाएगा।