सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने माना कि सरकार के दबाव में बदला फैसला
अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने एक बड़ा और अनोखा कदम उठाया, जिसमें उसने साफ माना कि उसने एक जज के तबादले का फैसला सरकार की इच्छा के अनुरूप बदला है। मध्य प्रदेश के जस्टिस अतुल श्रीधरन का तबादला छत्तीसगढ़ से इलाहाबाद हाई कोर्ट में किया गया, जो सरकार की आपत्ति के चलते हुआ। ये बात कॉलेजियम ने पहली बार सार्वजनिक रूप से स्वीकार की, जिससे न्यायपालिका और कार्यपालिका के रिश्तों में बढ़ते दबाव को उजागर किया गया।
ट्रांसफर विवाद और बार एसोसिएशन की प्रतिक्रिया : –
हालांकि यह मामला अकेला नहीं है। गुजरात हाई कोर्ट के दो प्रमुख जजों के ट्रांसफर पर भी विवाद हुआ, जहां बार एसोसिएशन ने विरोध जताया। जस्टिस संदीप भट्ट के ट्रांसफर का विरोध इसलिए हुआ क्योंकि उनका ट्रांसफर कोर्ट के प्रशासनिक पक्ष के खिलाफ आदेश देने के बाद हुआ था। बार ने इसे न्यायपालिका पर असामंजस और बाह्य दबाव समझा।
केंद्र सरकार का बढ़ता हस्तक्षेप : –
न्यूज रिपोर्टों के मुताबिक, पिछले सालों में केंद्र सरकार ने जजों के ट्रांसफर में अपना प्रभाव बढ़ाया है। कॉलेजियम द्वारा की गई सिफारिशों पर इस बार सरकार ने ध्यानपूर्वक आपत्ति जताई और कई बार सिफारिशों को रोक दिया या बदलाव की मांग की। इस बढ़ते हस्तक्षेप ने न्यायपालिका के स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता पर चिंता जगाई है।
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जजों के ट्रांसफर की चुनौतियां : –
ट्रांसफर के चलते जजों के करियर, वरिष्ठता, और न्याय देने की क्षमता पर प्रभाव पड़ता है। कई बार ट्रांसफर ऐसे इलाकों या कोर्टों में किए जाते हैं जहाँ जज की स्थिति कमजोर हो जाती है। यह न केवल जज के लिए चुनौतीपूर्ण होता है, बल्कि उस क्षेत्र की न्याय व्यवस्था के लिए भी नुकसानदायक हो सकता है। ऐसे ट्रांसफर से जजों में मनोबल गिर सकता है और न्याय की गति प्रभावित होती है।
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न्यायपालिका की स्वतंत्रता की जरूरत : –
जजों के ट्रांसफर में सरकार का हस्तक्षेप और कॉलेजियम के फैसलों में बदलाव यह सवाल खड़ा करते हैं कि क्या न्यायपालिका वाकई स्वतंत्र है? इससे जुड़े मामलों की उचित पारदर्शिता और जवाबदेही की जरूरत महसूस होती है, ताकि जनता का न्याय प्रणाली पर भरोसा बना रहे।
जजों के ट्रांसफर से जुड़ी नई घटनाओं ने यह साफ कर दिया है कि न्यायपालिका और सरकार के बीच संतुलन बनाना अब और भी जरूरी हो गया है। अगर सरकार के दबाव में फैसले बदले जा रहे हैं, तो इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर बुरा असर पड़ता है और आम जनता की न्याय में विश्वास कम होता है। इसलिए आने वाले समय में इस मुद्दे पर गंभीर चर्चा और सुधार की जरूरत है।
